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Rajasthan gk/गुर्जर-प्रतिहार वंश भाग द्वितीय

गुर्जर-प्रतिहार वंश भाग द्वितीय 


नमस्कार दोस्तों आपका मेरे ब्लॉग में स्वागत है फ्रेंड्स हम राजस्थान के गुर्जर प्रतिहार वंश के बारे में जानकारी ले रहे थे आगे की जानकारी मैं आपको बताने जा रहा हूं

भड़ोच के गुर्जर प्रतिहार
        मंडोर के प्रतिहार वंश से भड़ोच के गुर्जर प्रतिहारो का  घनिष्ठ संबंध प्रतीत होता है। ऐसी मान्यता है कि हरिश्चंद्र का भाई या पुत्र दद्दा प्रथम मंडोर से दक्षिण की ओर नईं राज्यव्यवस्था प्राप्त करने के अभिप्राय से निकल पड़ा। ओझा जी की मान्यता है कि भीनमाल के गुर्जरों का ही भड़ोच के राज्य पर या उनके कुटुंब का अधिकार बना रहा हो। इस गुर्जर प्रतिहार शाखा के 629 ई. से 641 ई. के कुछ दानपत्र मिले हैं  जिन्हें नांदी पुरी से दिया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि नान्दीपुरी गुर्जर प्रतिहार वंश की राजधानी रहा हो ,परंतु इसमें इन शाखाओं के लिए सामान्य महा सामंत शब्दों का प्रयोग मिलता है जिससे यह प्रमाणित होता है कि इस शाखा के गुर्जर प्रतिहार कभी सार्वभौम सत्ता के रूप में नहीं रहे।

दद्दा द्वितीय (627-640 ई.)
प्रभाकर वर्धन ने गुर्जरों को परास्त किया तथा हर्षवर्धन ने गुर्जरों से भीनमाल छीना। दद्दा द्वितीय भडोच के गुर्जर प्रतिहारो  में बड़ा शक्तिशाली शासक हुआ। इसके समय में वल्लभी का शासक धुर्वसेन द्वितीय था। हर्षवर्धन ने ध्रुवसेन पर आक्रमण किया। धुर्व सेन पराजित हुआ तथा उस ने भागकर भड़ोच के गुर्जर शासक दद्दा द्वितीय के दरबार में शरण ली। गुर्जर नरेश ने हर्ष से उसका राज्य वापस दिला दिया। इस घटना का उल्लेख जयभट्ट के नोसारी (बड़ौदा) से प्राप्त दान पत्र में हुआ है, जिसके अनुसार हर्ष द्वारा पराजित वल्लभी नरेश का परित्राण करने के कारण प्राप्त यस का वितान श्रीदद्द के ऊपर निरंतर चलता रहा । दद्दा द्वितीय की प्रथम ज्ञात तिथि 627 ई. है ।जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि यह युद्ध 629-30 ई. के पहले नहीं हुआ होगा ।दद्दा ने 640 ई. तक शासन किया ।उनके राज्य विस्तार की सीमा उत्तर में माही से लेकर दक्षिण में कीम तक और पूर्व में मालवा और खानदेश की सीमाओं से पश्चिम में स्थित समुद्रतट तक थी।जयभट्ट चतुर्थ इस  वंश का अंतिम शासक प्रतीत होता है जिसका ज्ञात समय 725 ई. है। ऐसा प्रतीत होता है कि अवंती के प्रतिहारों ने इस राजवंश को नांदी पुरी से निकाल दिया और इस घटना से उनका अंत हो गया।
राजोगड़ के गुर्जर प्रतिहार 

रायपुर (राजोगड़) पर प्रतिहार गुर्जर का गुर्जर महाराजाधिराज सावट का, पुत्र महाराजाधिराज परमेश्वर मथनदेव राज्य करता था। बहलोल लोदी के समय तक ढूंढाढ़ और माचेड़ी में भी गुजर रहते थे, जो बड़े गुर्जर कहलाते थे। बहलोल लोदी के समय तक बड़ गुर्जरों का राजगढ़ में रहना राजगढ़ शिलालेख से प्रमाणित होता है। फिरोज शाह तुगलक के समय माचेड़ी के गोगा देव गुर्जर का राज्य था।
जालौर उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार

नागभट्ट प्रथम (730-760 ई.)
नागभट्ट प्रथम जालौर अवंती और कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक कहा जाता है। नागभट्ट प्रथम का समय 730 ईस्वी से 760 ईस्वी माना जाता है ।यह बड़ा प्रतापी शासक हुआ ,इसका दरबार नागावलोक का दरबार कहलाता था, जिसमें तत्कालीन समय के सभी राजपूत वंश यथा गुहिल, चौहान ,परमार ,राठौर ,चंदेल ,कलचुरी ,चालुक्य आदि उसके दरबारी सामंत थे ।वह इस बात पर गर्व करते थे कि नागवलोक के सामंत है ।यह राजा अवंती के गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक था ।इसके समय में इसके वंश को बड़ी ख्याति प्राप्त हुई । इस शाखा के प्रतिहारो का भी उद्भव स्थान मंडोर ही प्रतीत होता है ।क्योंकि हरिश्चंद्र की भांति शिलालेखों में इस वंश के प्रवर्तक नागभट्ट को राम का प्रतिहार, मेघनाथ के युद्ध का रक्षक ,नारायण की मूर्ति का प्रतीक आदि विशेषताओं से विभूषित किया गया है। नागभट्ट को क्षत्रिय ब्राह्मण कहां गया है ।इसलिए इस शाखा को रघुवंशी प्रतिहार भी कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रतिहारों ने चावंडो से सर्वप्रथम भीनमाल का राज्य छीना, फिर आबू ,जालौर आदि स्थानों पर उनका अधिकार रहा और फिर उज्जैन उनकी राजधानी रही। इन्होंने आगे चलकर कन्नौज के महाराज जी को अपने अधिकार में किया और वहां अपने राजधानी स्थापित की। कुवलयमाला तथा अन्य ऐतिहासिक साधनों के आधार पर डॉ दशरथ शर्मा नागभट्ट की राजधानी जालौर मानते हैं और दूसरे मत उज्जैन और कन्नौज को मानते हैं।

वत्सराज (783-795)
देवराज की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र वत्सराज सिंहासन पर शासित हुआ ।इसने संभवत: 786 ईस्वी से 795 ईस्वी तक शासन किया ।यह अपने समय का एक शक्तिशाली राजा सिद्ध हुआ। अपने अनेक युद्ध के परिणाम स्वरूप इस ने अपने वंश को अभूतपूर्व गौरव प्रदान किया ।इसने अपने पराक्रम से गौड़ और बंगाल के शासकों को पराजित किया। इसके समय में लिखी गई उदयोतनसुरी की कुवलयमाला, जो जालौर में लिखी गई थी तथा 783 ई. में जैन आचार्य जिनसेन द्वारा लिखा गया हरिवंश पुराण अपने ढंग के अच्छे ग्रंथ है। वच्छराज को रानी सुंदर देवी से नागभट्ट द्वितीय का जन्म हुआ जिसे भी नागवलोक कहते हैं ।यह एक महत्वाकांक्षी शासक सिद्ध हुआ।
पालो से युद्ध:
                 जिस समय प्रतिहार वंश उत्तरी भारत में अपनी सार्वभौमता की नींव रख रहा था, उस समय बंगाल में पाल वंश भी चक्रवर्ती बनने के सपने देख रहा था। इन दोनों ने साम्राज्यवादी राजवंश के मध्य में कन्यकुब्ज का निर्बल आयुध वंश था। प्रतिहार और पाल दोनों इस वंश को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेने की योजना बना रहे थे। इसके समय से भारतीय इतिहास में कन्नौज को प्राप्त करने के लिए पूर्व में बंगाल से पाल, दक्षिण से मान्यखेत के राष्ट्रकूट एवं उत्तर पश्चिम से उज्जैन के प्रतिहारों के मध्य लगभग डेढ़ सदी तक संघर्ष  चला ।इसे भारतीय इतिहास में "त्रिपक्षीय संघर्ष" या " त्रिकोणात्मक का संघर्ष" कहा जाता है । त्रिकोणात्मक संघर्ष की शुरुआत गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज ने की थी ।वत्सराज ने पल नरेश धर्मपाल को पराजित किया। इसने कन्नौज के शासक इंद्रायुध को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसलिए वत्सराज को प्रतिहार वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
तो दोस्तों आगे की जानकारी जानने के लिए बने रहिए मेरे ब्लॉग में धन्यवाद।

2 comments:

  1. पेनोरमा बुक के जेसे ही लिख रखा है

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